काबुलीवाले! ओ, काबुलीवाले।
"खामोशी से गुजर गई जो,
सामने से, वो एक कहानी थी।
एक किस्सा थी, कुछ यादें थीं।
एक पूरी जवानी थी।
एक बचपन था।
किसी जमाने की आखिरी निशानी थी।"
जैसे मैं शायद उस आखिरी पीढ़ी से हूँ जो 90's की die hard fan है। जो गोविंदा, कादर खान, शक्ति कपूर, जॉनी लीवर की जोड़ी के लिए कभी भी t.v. के सामने बैठ जाएं। जैसे मेरे पापा शायद उस आखिरी पीढ़ी से हैं जो अब भी रिश्तेदारों को अहमियत देते हैं, उनकी इज़्ज़त करते हैं। उसी तरह ये 'कबाड़ीवाला' उस पीढ़ी के कुछ आखिरी बचे लोगों में से होगा जिनकी बोली में प्यार हुआ करता था, इज़्ज़त हुआ करती थी, तहज़ीब हुआ करती थी। वो लोग जिनक नाम ही चाचा,काका,दादा,बाबा हुआ करता था। जिनके किरदार हुआ करते थे फिल्मों में। जो कभी भगवती प्रसाद बाजपेई के 'मिठाईवाला' हैं, कभी रबिन्द्रनाथ टैगोर के 'काबुलीवाला' होते हैं। ठेले पर रखा सामान बदल जाता था पर मीठी बोली नहीं। बोली में सच्चाई। आंखों में ईमान। दिल मे प्यार।
आज जब हम किसी फेरीवाले, सब्जीवाले या कबाड़ीवाले को मिलते हैं तो मन मे उसके प्रति समभाव नही होता। उसकी बोली में अकड़ होती है। उसकी आँखों मे असंतुष्टि रहती है। उसके दिल में गुस्सा होता है। और हमारे दिल मे। डर। कहीं का चोर होगा, शराबी होगा, अपराधी भी हो सकता है। बच्चों को तो अंदर ही रखो। घर के दरवाजे को पूरा मत खोलो, अंदर का सब दिखेगा। आज उनको देख के जानकर भी मुँह से चाचा या बाबा नही निकलता। सब 'uncle' हैं। आज किसी को गुज़रते देखके लगा जैसे कोई पुरानी फ़िल्म चल रही है।
वक़्त के साथ सब बदलता है। आज की परेशानियां अलग हैं, सोच अलग है, किस्से अलग हैं। आज भी खूबसूरती है, ईमान है, सच्चाई है, आत्मा है, मानवता है। बस शरीर अलग है। रूप अलग है। अच्छाई कभी नही मिटती। सोने की लंका में भी थी, लोहे के करागाह में थी, राजा के दिल में थी, नंगे बामन के पैर में थी, कूबड़ में थी, झूठन में थी। आज भी है। हमेशा रहेगी। बुराई के साथ। पर विजय होगी। हमेशा।
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